फूलन
‘छोटी सी उमर परणाई हो बाबा सा
कांई थारो करो मैं कसूर ?’
वो नन्ही सी जान जिसे सीने से लगाकर माता-पिता ने लाड़-चाव से पाला पोसा,हर नाज़ नखरा उठाया , एक दिन जब घर छोड़ विदा होती है तो हर किसी का कलेजा फट पड़ता है.शायद यही विधि का विधान है कि हर बेटी एक दिन पराई हो जाती है.
बेटी के लिए जिस घर जन्म लिया उसे छोड़ना जितना दुखदायी होता है उससे अधिक दुखदायी उसके माता पिता के लिए भी उसे घर से विदा करना होता है.
लेकिन ज़रा सोचिए कि बेटी बालिग हो तो फिर भी सही , लेकिन यदि नाबालिग हो तो किस कदर कष्टदायी होता होगा इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते !
जिन नन्हे हाथों को गुड़िया-गुड्डे , कापी-किताब सहेजने चाहिए थें उन्ही हाथों में घर की समस्त जिम्मेदारियों की चाबियां दे दी जाती हैं.
बाल-विवाह !
एक ऐसी प्रथा जो आज भी बिहार, मध्यप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, छत्तीसगढ़,राजस्थान और उत्तरप्रदेश के कई गांवों में पैर पसारे बैठी है. बालविवाह केवल भारत में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में होते आए हैं !
समझा जाता है कि यह प्रथा भारत में शुरू से नहीं थी बल्कि मुगलकालीन आक्रमणकारियों के समय से अस्तित्व में आई . तब भारतीय बाल विवाह को लड़कियों को विदेशी शासकों से बलात्कार और अपहरण से बचाने के लिये एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता था।
वैसे इस कुप्रथा के कुछ अन्य कारण गरीबी, अशिक्षा और लिंगभेद आदि भी है.
कानून के मुताबिक पुरुषों के लिए विवाह की उम्र इक्कीस वर्ष और महिलाओं के लिए अठारह वर्ष है।
लेकिन आज भी कई गांवों में बाल विवाह का रिवाज कायम है। यहां तक की कई बार तो बच्चों की शादी थाली में बिठा कर यानी केवल पांच साल से कम उम्र में भी कर दी जाती है। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी हमारे देश में बाल विवाह जैसी कुप्रथा का अंत नहीं हो पा रहा है। जबकि सब जानते हैं कि यह न केवल कानूनी अपराध है बल्कि एक सामाजिक अभिशाप भी है.
समाज के हर वर्ग को इसे समूल समाप्त करने में योगदान करना चाहिए.
यह तो हुई कानूनी पहलू की बात लेकिन इस कुप्रथा के कुछ पहलू ऐसे हैं जो किसी के भी रोंगटे खड़े कर दें ! बालिकाओं की मनोस्थिती पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
इस कुप्रथा से उपजा सबसे हृदयविदारक और जीवंत उदाहरण है दस्यू सुंदरी ‘फूलन’ की कहानी!
1996 में शेखर कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म बैंडिट क्वीन में दस्यू सुंदरी फूलन देवी के जीवन में इसी कुप्रथा के चलते आए बदलावों को बखूबी दर्शाया गया है.
देखा जाए तो ‘फूलन देवी ‘ शायद इसी कुप्रथा से जन्मा वो स्याह सच है जो अपने सबसेे क्रूरतम रूप में हमारे सामने आया!
कहा जाता है कि एक नारी ईश्वर की एक ऐसी खूबसूरत एवं कोमल रचना है जिसके हृदय में ममता, प्रेम, दया , परोपकार और नम्रता कूट-कूट कर भरी होती है !
एक नारी अपनी ममता और प्रेम के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है. लेकिन यदि उसके इसी गुण को उसकी कमजोरी समझ उसका शोषण किया जाए तो वह उस रूप को पा लेती है जिसकी कल्पना से शायद ईश्वर खुद भी भयभीत रहते हैं!
जब किसी नारी के सहज प्रेम , अस्तित्व और सम्मान को कुचलने की चेष्टा की जाती है तब वह केवल और केवल तबाही लाती है!
फूलन , जिसका विवाह गरीबी के चलते मात्र 11 वर्ष की कच्ची उम्र में , उससे तिगुनी उम्र के व्यक्ति से कर दिया जाता है और फिर ससुराल में उस नन्ही सी जान की मासूमियत को कुचल कर उसका मानसिक और शारीरिक शोषण किया जाता है तो एक दिन उसका धैर्य जवाब दे जाता है , और उसका हृदय पत्थर की तरह कठोर बन, ईश्वर द्वारा प्रदत् सभी नैसर्गिक गुणों, दया, प्रेम, ममता, परोपकार आदि भूल, एक क्रूरता की प्रतिमूर्ती बन जाता है और तब वो बेरहम फूलन जन्म लेती है जिसके हाथों 22 हत्याएं होती हैं और उसके हाथ ज़रा भी नहीं कंपकपाते !
इसी फिल्म में नुसरत फतेह अली द्वारा गाया और संगीतबद्ध किया एक राजस्थानी लोकगीत है- ‘छोटी-सी उम्र में परणाई रे बाबा सा’।
यह अत्यंत हृदय विदारक एवं मार्मिक विदाई गीत है जो बाल विवाह के दंश को झेलती एक नन्ही बालिका की मनोस्थिती को दर्शाता है.
छोटी सी उमर परणाई हो बाबा सा
काई थारो करो मैं कसूर ?
था घर जनमी था घर खेली
अब घर भेजो दूजा सा हो !
मुंह से काई बोला
मोरा आँसूड़ा बोले
हिवड़े भरयो है भरपूर
थारे पिपरिए री हो री मैं चिड़कली
थे चाहो ताओ उड़ जाऊं सा
भेजो तो भेजो म्हाणे मरजी है थारी
सावण में बुलाई ज्यो जरूर !
बालिका वधु बनी हर बच्ची के दिल से शायद अपने माता-पिता के लिए यही पुकार निकलती होगी कि मैंने ऐसा कौन सा कसूर कर दिया जो इस छोटी सी उम्र में मेरा विवाह कर रहे हो. जिस घर में जन्म लिया , खेली , आज उसी घर से यूं विदा कर रहे हो ?
मैं अपने मुंह से क्या कहूं मेरे आँसू मेरे दिल का सारा हाल बयां कर रहे हैं. मैं जा तो रही हूं , लेकिन दिल में सारी यादें और अपनी दुखभरी व्यथा लेकर जा रही हूं.
मैं तो तुम्हारे घर के आंगन में लगे पीपल के पेड़ पर बैठी नन्ही चिड़िया के जैसी ही तो हूं , मुझे यूं उड़ने को कह रहे तो मुझे उड़ना ही पड़ेगा !
मेरे बाबा सा , हो सकता है कि तुम्हारी कुछ मजबूरियां हो जो मुझे यूं भेज रहे हो , लेकिन सावन में बुलवा ज़रूर लेना, भूल न जाना. मैं इंतज़ार करूंगी घर आने का!
यह गीत एक प्रकार से बालिका वधु और उसके माता पिता तीनों के ही दिल की पीड़ा बयां करता है.
इस विदाई गीत से दर्दनाक और क्या होगा ?
काश कच्ची उम्र में ऐसी विदाई कभी किसी की न हो !
इसके लिए हम सभी को मिलकर आवाज़ बुलंद करनी होगी!
हमें ऐसे परिवारों और समाज के लोगों को इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए जागरूक करना होगा। यदि किसी के संज्ञान में ऐसा मामला आता है तो वह विवाह को अमान्य या निरस्त घोषित करवा सकता है.
याद रखिए ,
कोई भी ‘फूलन’ कभी पैदा नहीं होती , वे यहीं , इसी समाज द्वारा बनाई जाती हैं ! ‘
( वैसे जागरुकता और शैक्षिक प्रगति के चलते यह प्रथा अब समापित की ओर है! पिछले एक दशक के मुकाबले बाल विवाह में बड़ी गिरावट दर्ज हुई है। देश के 2006 और 2016 के स्वास्थ्य सर्वेक्षण और 2011 की जनगणना के आधार पर तय की गई इस रिपोर्ट में सामने आया कि इस दौरान विवाहित नाबालिग लड़कियों की संख्या 47 फीसद से घटकर 27 फीसद रह गई है। यह अंतर काफी बड़ा है। देश में बाल विवाह में आई कमी से वैश्विक बाल विवाह के आंकड़ों में भी भारी गिरावट दर्ज की गई है।-विकिपीडिया)
~Sugyata
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