पौ फटने से दिन ढले बस अनवरत लगी रहती
गरमा- गरम नाश्ता हो या खाना
हर किसी की पसंद – नापसंद सर आँखों पर रखती
बस खुद के लिए ही कुछ न कर पाती पर फिर भी करती क्या हो तुम ?
सास की दवाई हो ससुर की बीमारी हो
या बच्चो की पढाई हो मेहमाननवाजी हो
या घर की साफ़ -सफाई हो
सब बस मेरी जिम्मेदारी फिर भी यही सबका यही तकियाकलाम
करती क्या हो तुम ?….
बच्चो के संग ऑफिस भी घर ही से संभालती
बीमार भी रहु तो कभी अपना सोच न पाउ
गलती से ही अगर फुरसत के भी कुछ पल पाउ
तो सब यही कहते करती ही क्या हो तुम ???
अपना वजूद भूलकर सबको मैं अपनाती
खुद को नकार सबको गले लगाती
तुम सब चैन से रहते क्युकी सारी जिम्मेदारी मैं ही ओढ़ लेती हूँ
खुद को होम कर सबका जीवन सवारती
सपनों को अपने परिवार में ही जीती हूँ
तुम्हें अपना साथ देकर खुद को धन्य मैं समझती हूँ
फिर भी यही राग अलापते “दिनभर करती ही क्या हो तुम ?”
आपने ये जुमला बहुत से घरो में सुना होगा ” करती ही क्या हो ,तुम ?”।
एक औरत चाहे कितना ही सबके लिए क़र ले , कितनी ही सबका ख्याल , सबकी सेवा करले पर आज भी बहुत से घरों में यही तकियाकलाम सुनाई देता है की “करती ही क्या हो तुम “? ।
ऐसे लोगों से बस यही गुजारिश है मेरी की आप अगर मदद न करो कोई बात नहीं पर किसी के किये- कराये को ऐसे मिटटी में न मिलाओ । एक नारी अपने परिवार को जोड़कर रखती हैं , अपने घर का हर एक एक कोना बड़े प्यार से सजाती -सवारती है , इसलिए नहीं की आप ऐसे उसके त्याग , उसकी भावनाओ को नकार दे और न ही वो कुछ चाहती हैं आपसे बल्कि इसलिए की वो अपना समझती है सबको ।
आभार सहित
©️®️”अंजलि व्यास “