मेला
कठिनाइयों से जूझते और एक ही निश्चित ढर्रे पर चलते -चलते ,हमारे नीरस जीवन में हमें जब कभी -कभार किसी मेले में जाने का सौभाग्य प्राप्त होता है तो पूरे परिवार का कम से कम जी तो बहल ही जाता है.
मेला फिर चाहे किसी देहात का हो या फिर किसी माल में लगे फेस्टीव सीज़न का , जीवन में इसी मेले की रौनक देखने के बहाने कुछ रंग और उल्लास लौट आते हैं .
मेले की वो छोटी छोटी सी चीजें जैसे गुब्बारे, खिलौने, झूले, भेल, गोलगप्पे और आइस्क्रीम आदि हमारे चेहरे पर सहज ही मुस्कान ला, हमें आनंदित कर देती हैं !
वैसे देखा जाए तो यह मेला समय और स्थान अनुसार अपने स्वरूप में बदलाव तो करता ही रहता है लेकिन इसमें जाने वाले लोगों के स्वभाव और स्थिती में भी परिवर्तन होता रहता है.
तभी तो अभी कुछ साल पहले वे जब बच्चों संग अपने कस्बे में लगा मेला देखने जाया करते थे तो जहां महीने के ख़र्च में से मेले के नाम पर बचा कर रखे गए महज़ डेढ़ सौ रूपए जेब से निकालकर बामुश्किल ही खर्च कर पाते ,ये सोचकर कि एक बार जो नोट तुड़वा लिया तो फिर सब खर्च हो ही जाएगा.
वहीं बच्चे भी चेहरों पर मुस्कान लिए अपनी हर इच्छा को सब्र के साथ छिपाकर मेले में घूमा करते.
बहुत हुआ तो आइस्क्रीम खा ली या छोटे को कार और छुटकी को गुड़िया दिलवा दी वरना डेढ़ सौ रूपए मुट्ठी में बांधे , मेले की रौनक आँखों में समेट , यूंही लौटा लाते !
आज वही परिवार यह मेला देखने नहीं जाता क्योंकि सुना है कि वहां उनके स्टैंडर्ड की न तो कोई चीज मिलती है और न ही भीड़ !
~Sugyata