अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में
खाट पर पड़ी माँ न जाने किसके हिस्से आती है,
लेकिन माँ के हिस्से हमेशा की तरह
बची बासी रोटी पर धरे अचार जैसे
कुछ किस्से ही आते हैं !
किस्से कि बचपन में उनकी अम्मा के हाथ सिली
मोतियों वाली गोटा-झल्लर लगी फ्राक
जो हर दावत-ब्याह में पहन कर जाती,
का रंग चटक नीला था!
किस्से कि गरमियों की दोपहरी
गाँव की शैतानी टोली संग निकली,
बाग में माली की फटकार सुन
न जाने कितने ही अमिया
भागते में उनके हाथ से छूट जाया करती थी!
किस्से कि जब गौनाई गई तब
पास के दस गाँव में
उनके झक्क दूधिया रंग का रुक्का पड़ गया था!
किस्से कि छोटे की छठी पर
पहराया पीला झबला आज भी संदूक में
एतिहात से धरा है कि
उसका बालक पैहरेगा तो सुभ होगा !
किस्से कि छुटकी का सूखा रोग
उसे निरा कंकाल बना उसकी आँख उबाल
चितरंजन बैद की बूटी के डर के मारे जिंदा छोड़ गया !
किस्से की तीसरे पहर मिस्सी रोटी ऊपर
आम की लौंजी धर खाया करती तो
पेट भर जाता पर नीयत न भरती मेरी!
किस्से कि बड़के के भात में फूफा इस मारे रूठे कि
उनकी पैंट-कमीज का कपड़ा हल्की टैरिकोट का था!
किस्से कि परके साल आदमपुर वाले मामा
जो सावन में कोतली लाए
वो मामी के बाद दो साल भी न रहे
और ठीक दो साल पीछे ही चल बसे !
किस्से कि संदूक में धरी
बियाह शादियों में मिली नई नकोर धोतियां
अब कोई न पैहरैगा तो मेरी तेहरी में
पंडिताईनों को निकाल दियो!
किस्से कि मेरे बन्ने ने पूरी उमर
कभी किसी बात की कमी न होने दी
फिर चाहे सूखी ठंड में पैरों की सूजती उँगलियों को
गरम जुराब हो या कलेजे को गरमाई देते
चौड़ी गली वाले मोहन हलवाई के तिलबुग्गे हों,
खूब चटकारा ले ले उड़ाए!
किस्से की बड़की के ब्याह में इतना पानी बरसा
कि हलवाई भगौने उठाए उठाए भागे ,
और आदमी इतना कि कनात के नीचे
छिपने को जगह कम पड़ गई !
किस्से कि अब परमात्मा मुझे कैसे भूल गया
पूरी उमर ठाकुर जी की इत्ती चाकरी करी ,
गोवरधन परिकम्मा हर साल लगाई,
अब ठा ले तो जनम सफल हो परभू !
माँ का इन किस्सों को हर बार हर किसी को
कुछ यों सुनाना ज्यों पहली बार सुना रही हों,
सुनने वाले हर शख्स का कलेजा भारी करता,
और उनके जाने के बाद भी किस्सों में उन्हें जीवित रखता,
अपने हिस्से के किस्से सुनाती सभी माँएं
किस्सा बनकर ही हमारे जीवन में रह जाती हैं !
(क्लीषै कुछ भी नहीं हैं, मैंने देखा है , हर माँ के जीवन में सब कुछ जस का तस है !)